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क्या जुपिटर के चन्द्रमा यूरोपा में पनप रहा है जीवन ?

क्या जुपिटर के चन्द्रमा यूरोपा में पनप रहा है जीवन ?

अंतरिक्ष के समंदरों में कैसी होगी ज़िंदगी ?

क्या यूरोपा की मोटी बर्फ की परत के निचे हो सकता है काम्प्लेक्स फूड चेन ?

जुपिटर ग्रह के चन्द्रमा यूरोपा पर टटोली जाएगी जीवन की संभावना  

स्पेस युग की शुरुआत के साथ ही इंसानो को यह सवाल हमेशा से ही परेशान करता रहा है कि क्या हमारे पृथ्वी से परे इस विशाल ब्रम्हांड में कही और जीवन मौजूद है | हमारे सबसे एडवांस्ड space telescopes दिन-रात ऐसे ग्रहो के खोज में लगे हुए है जहाँ जीवन मौजूद हो सकता है पर अभी तक उन्हें कोई बड़ी सफलता हाथ नहीं लगी है | शुरू में माना जाता था कि हमारे सौरमंडल के दो ग्रहो में जीवन कि सबसे ज्यादा सम्भावनाये मौजूद है जिनमे से एक है वीनस और दूसरा है मार्स मंगल ग्रह | पर कई सालो तक चले अध्यनो से हमें यह पता चला है कि इन दोनों ही ग्रह पर जीवन मौजूद नहीं है हालाकिं मंगल ग्रह पर जीवन की संभावनायों की तलाश अभी जारी है, और भविष्य में मंगल पर इंसानी बस्तियां बसाने पर भी विचार चल रहा है| साथ ही वैज्ञानिको ने अपनी खोज का दायरा वीनस और जुपिटर के चन्द्रमाओ कि ओर भी मोडा है|

पृथ्वी के चंद्रमा की तुलना में थोड़ा छोटा, यूरोपा मुख्य रूप से सिलिकेट रॉक से बना है और इसमें पानी और बर्फ की परत है और शायद एक लोहे-निकल की कोर है। इसमें बहुत पतला वातावरण है, जो मुख्य रूप से ऑक्सीजन से बना हुआ है। 1970 के दशक की शुरुआत से ही यूरोपा को टेलिस्कोप और स्पेस प्रोब जैसे पायनियर 10 और 11, वायेजर 1 & 2 और गैलिलियो के ज़रिये एक्सामिन किया जा रहा है।

वॉयेजर 1 1979 में जुपिटर के सबसे करीब पहुंचा था, उसी साल जुलाई में वॉयेजर 2 ने भी जुपिटर का रुख किया। वायेजर का सबसे बेस्ट इमेजिंग रिज़ॉल्यूशन केवल 1 मील यानि 2 किलोमीटर / पिक्सेल था। इन पिक्चर्स ने यह साफ कर दिया की जुपिटर के चन्द्रमा यूरोपा की सतह पृथ्वी के चंद्रमा की तुलना में ब्राइटर है, इसकी सतह पर दरारें और धारियाँ हैं, लेकिन क्रेटेर्स कुछ कम हैं।

इस प्रकार, बड़े इम्पैक्टस्स वाले क्रेटरों की कमी से वैज्ञानिको ने यह अंदाज़ा लगाया है कि यूरोपा की सतह रिलेटिवली यंग है, किसी चीज़ ने इम्पैक्ट के इन निशानों को शायद मिटा दिया होगा - जैसे बर्फीले क्रस्ट के सेटल होने से यह निशान मिट गये होंगें, या फिर बर्फीले, ज्वालामुखीय प्रवाह ने इन्हें बर्फ के नीचे छुपा दिया है

क्यूंकि कई साल तक किये गए रिसर्च से पता चला है कि इन दोनों ही ग्रहो के चन्द्रमा भले ही बाहर से बेहद ही ठन्डे और बेजान नज़र आते हैं | पर इनके कुछ चन्द्रमा बेहद ही खास है जिनके सतह पर जमे मोठे बर्फ के पर्त के नीचे विशाल तरल पानी के समुद्र मौजूद हो सकते हैं | जहाँ किसी प्रकार का microbial life या complex life भी मौजूद हो सकता है | पर हमें इनके बारे में और अधिक जानने के लिए इन चन्द्रमाओ का करीबी से अध्यन करना होगा |

नासा ने ऐलान किया है कि वह Jupiter ग्रह के चन्द्रमा Europa का अध्यन करने के लिए एक विशेष मिशन Europa clipper पर काम कर रहा है | पर आखिर यह मिशन क्या है और आखिर कैसे यह Jupiter ग्रह के चन्द्रमा Europa पर जीवन कि खोज करेगा यह सब हम इस विडियो में आगे देखेंगे |

इटली के महान अंतरिक्ष वैज्ञानिक गैलीलियो गैलिली ने 1610 में Jupiter ग्रह कि परिक्रमा कर रहे इसके 4 विशाल चन्द्रमा – IO , Europa , Ganymede और Callisto की खोज की | यह पहली बार था जब हमने किसी दूसरे ग्रह की परिक्रमा कर रहे चंद्रमायों की खोज की थी और इसी वजह से इन्हे Galilean moons के नाम से भी जाना जाता है | 1989 में NASA ने Jupiter ग्रह और उसके चंद्रमायों का अध्ययन करने के लिए Galileo Mission को launch किया | इस मिशन का मेंन मकसद Jupiter ग्रह और उसके चंद्रमायों का अध्ययन करना था | करीब 6 साल  की लंबी यात्रा करने कि बाद साल 1995 में यह Spacecraft Jupiter ग्रह के orbit में दाखिल हुआ | करीब 8 साल तक चले अपने Mission के दौरान इसने Jupiter ग्रह और उसके Moons को लेकर कई अद्भुत खोज और चौकाने वाले खुलासे किये जिसने इस ग्रह और उसके चंद्रमायों को देखने का हमारा नजरिया हमेशा के लिए बदल दिया |

इसने सबसे ज्यादा चौकाने वाले खुलासे Jupiter ग्रह के चन्द्रमा Europa को लेकर किये | Galileo mission द्वारा जुटाए गए data और धरती पर भेजे गए Pictures को स्टडी करने से वैज्ञानिको को पता चला की Europa के सतह पर जमे कई किलोमीटर मोटे बर्फ के पर्त के नीचे विशाल तरल नमकीन पानी के विशाल महासागर मौजूद हो सकते हैं | हाल ही में किये गए एक रिसर्च के अनुसार Europa पर करीब 20 किलोमीटर विशाल बर्फ के पर्त के नीचे करीब 80 किलोमीटर गहरे महासागर मौजूद हो सकते है | अनुमान के लिए मै आपको बता दू की धरती का सबसे गहरा समुद्री भाग Mariana trench है जो कि करीब 11 किलोमीटर गहरा है |

Europa पर पृथ्वी के सभी महासागरों में मौजूद पानी से भी दोगुना पानी मौजूद है | ऐसे में इन विशाल समुद्रो में कई चौकाने वाली चीजे मौजूद हो सकती हैं |

माना जाता है कि ये समंदर नमकीन हैं, जिनमें सोडियम क्लोराइड पाया जाता है, जैसे कि हमारी पृथ्वी के समुद्रों का पानी है. इससे भी इन चंद्रमाओं पर जीवन होने की संभावना बढ़ जाती है.

वैज्ञानिको के अनुसार Europa के समुद्रो में जीवन के लिए जरुरी Organic Molecules , Energy और Liquid water मौजूद है ऐसे में इसके गहरे समुद्र की सतह ने निचे किसी प्रकार का जीवन मौजूद हो सकता है। कुछ वैज्ञानिको का मानना है की इसके विशाल समुद्रो में Bacteria जैसे microbial life मौजूद हो सकते हैं | ऐसे में यह काफी हद तक हमारे पृथ्वी के शुरूआती दिनों के तरह हो सकता है जहा इन शुक्ष्म जीवो के जरिए धरती के महासागरों में जीवन पनप रहा था | वही कुछ वैज्ञानिको का मानना है की इसके महासागरों में किसी प्रकार का Complex life भी मौजूद हो सकता है जैसे किसी प्रकार का समुद्री जीव |

वैज्ञानिकों का कहना है कि किसी भी ग्रह पर जीवन की फूड चेन के लिए बैक्टीरिया ज़रूरी होते हैं. जो कीमोसिंथेसिस नाम की रासायनिक प्रक्रिया से समुद्र के भीतर मौजूद गर्म सोतों से ऊर्जा लेते हैं. और लंबी ट्यूब जैसी संरचनाएं बनाते है, जो समुद्र की सतह तक आती हैं.

फिर समुद्र में रहने वाले दूसरे जीव जैसे मछलियां, इन लंबी ट्यूब को खाती हैं. फिर उन्हें शार्क जैसी शिकारी मछलियां खाती हैं. ये फूड चेन धरती पर मिलती है. इस तरह की फूड चेन यूरोपा के समंदरों में भी हो सकती है.

सैटर्न के चंद्रमा, एन्सलाइडस में मौजूद इंटरनल ओसियन दुनिया भर में मशहूर हैं। इसी तरह के महासागर जुपिटर के चन्द्रमा यूरोपा में भी हो सकते हैं| साउथवेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट के नए रिसर्च से पता चलता है कि चट्टानों और बर्फ की परतें महासागरों के भीतर जीवन के लिए ढाल का काम करती हैं, जो इसे बाहरी प्रभावों, रेडिएशन और अन्य खतरों से बचाती हैं और यहाँ तक की इसकी मौजूदगी को डिटेक्ट होने से भी बचाती हैं। चट्टान और बर्फ की परतें ढाल का काम करती है और उनमें रहने वाले जीवन की रक्षा करती हैं।

मोटी बर्फ की चट्टानों से ढके यह यह महासागर जीवन के लिए ज्यादा सूटेबल हैं क्यूकि यह पृथ्वी के महासागरों की तरह बाहरी खतरों जैसे एस्टेरोइड, कोमेट्स की टक्कर, तारों और सौर मंडल और आकाशगंगायों से आने वाले हजारो खतरों से सुरक्षित हैं जैसे रेडिएशन, गामा रे बर्स्ट आदि।

गैलीलियो मिशन ने यह भी पता लगाया था की यूरोपा के चारो ओर जुपिटर की मैगनेटिक फील्ड डिस्टर्ब हो रही है, इससे यह साफ पता चलता है कि यूरोपा के सतह के भीतर एक विशेष प्रकार का मैगनेटिक फील्ड बनाया जा रहा है, सतह के नीचे मौजूद कंडक्टिव तरल द्वारा। यूरोपा की बर्फीली संरचना के आधार पर, वैज्ञानिकों को लगता है कि इस मैगनेटिक फील्ड को बनाने के लिए सतह के नीचे नमकीन पानी का एक विशाल महासागर हो सकता है।

यूरोपा में सौर मंडल में मौजूद किसी भी सॉलिड ऑब्जेक्ट की तुलना मे सबसे स्मूथ सतह है। जिसने इस कल्पना को जन्म दिया है कि इसकी सतह के नीचे पानी का एक विशाल महासागर मौजूद है, जिसमें पृथ्वी के अलावा भी जीवन मौजूद हो सकता है। टाइडल फ्लेक्सिंग यानि ज्वार से निकलने वाली गर्मी से समुद्र तरल रहता है और टेक्टोनिक प्लेटस्स के समान बर्फ की मूवमेंट को भी बढ़ाता है।

हबल स्पेस टेलीस्कोप से सैटर्न के चंद्रमा एन्सलाइडस पर देखे गए पानी के फव्वारों के जैसे ही फव्वारें यूरोपा में भी मौजूद हैं, मई 2018 में, वैज्ञानिको ने 1995 से 2003 तक जुपिटर की परिक्रमा करने वाले गैलीलियो स्पेस प्रोब से मिले डेटा के एक अध्ययन के आधार पर, यूरोपा पर पानी के फव्वारों और उससे संबंधित गतिविधियों का समर्थन किया है । इस तरह की पानी के फव्वारों की मौजूदगी यूरोपा की सतह पर उतरे बिना रिसरचर्स को जीवन के खोज में मदद कर सकती है।

और इसी वजह से 25 अगस्त, 2019 को American Space Agency NASA ने ऐलान किया था कि वह इस चन्द्रमा पर जीवन की खोज के लिए Europa Clipper नाम के Mission पर काम कर रहा है , जिसे 2023 तक Launch किये जाने कि सम्भावना है | इस Spacecraft में कुल मिलाकर 9 Scientific Instruments मौजूद होंगे जो करीब 4 सालो तक Europa के Surface और उसके Underground Oceans का अध्ययन करेंगे |

यूरोपा की सतह पर जीवन के संकेतों का पता लगाने के लिए, एक अंतरिक्ष यान यूरोपा पर उतरेगा और सतह से लगभग 4 इंच यानि 10 सेंटीमीटर नीचे से नमूने इकठ्ठा करेगा। यह वो गहराई है जिसमें समुद्र के नीचे मौजूद मटेरियल की केमिकल केमिस्ट्री बाहरी रेडिएशन से बची रहती है।

नमूनों को रोबोट लैंडर के अन्दर मौजूद एक मिनिएचर लैब में टेस्ट किया जाएगा, जिस तरह मंगल ग्रह पर लैंडर्स और रोवर्स नमूनों का अध्ययन करते रहें है। इसके ऑनबोर्ड केमिकल एनालिसिस लैब के अलावा, यूरोपा लैंडर मिशन में जियोलॉजिकल एक्टिविटीस जैसे पानी के बर्फीले फव्वारों, यूरोपा की बर्फ की परत का खिसकना etc का पता लगाने के लिए इसमें सिसमोमीटर, माइक्रोस्कोप और एक कैमरा भी अटैच्ड होगा जो कि इसके Surface की high resolution तस्वीरें धरती तक भेजेगा|

नासा ने जुपिटर के चंद्रमा यूरोपा को एक्स्प्लोर करने के लिए एक रोबोट का निर्माण किया है जो इसके बर्फीले खोल के नीचे जीवन की खोज करेगा जिसका नाम है बोयांट रोबोट जो यूरोपा की मोटी बर्फ की सतह को ड्रिल करके यूरोपा के समुद्र में उतरेगा|

नासा के जेट प्रोपल्शन लैब के रिसर्चर अंटार्कटिका में बर्फ के नीचे एक नए रोबोट का टेस्ट कर रहे हैं, यह देखने के लिए कि क्या यह यूरोपा और एनसेलाडस जैसे बर्फ से ढके चंद्रमाओं पर सिचुएशन को संभाल पायेंगें या नहीं ?

इस मिशन का मुख्य उद्देश्य इस चन्द्रमा पर जीवन के अस्तित्व की खोज करना होगा जो कि हमारे पृथ्वी से परे इस सौरमंडल में जीवन के लिए सबसे उपयुक्त जगहों में से एक है |

इस मिशन में कुल 4 billion dollars का खर्च आने का अनुमान है | Europa Clipper Mission द्वारा इकठ्ठा किये गए जानकारियों का इस्तेमाल Europa Exploration के अगले मिशन Europa Lander में किया जा सकेगा | यह एक Interplanetary Lander होगा जो कि Europa पर land कर वहा जीवन की खोज करेगा | Europa clipper से इकठ्ठा किये गए data का इस्तेमाल कर वैज्ञानिक इस Lander के landing के लिए सबसे उपयुक्त जगहों का चुनाव कर सकते है जहा जीवन के मौजूद होने की सबसे ज्यादा संभावनाएं मौजूद होंगी|

 

हिन्दुतान ऐरोनौटिक्स लिमिटेड कर रही है ऐसे एयरक्राफ्ट पर रिसर्च जो भविष्य में बिना पायलट के करेंगें बालाकोट जैसे अटैक | क्या हमारे सौरमंडल के ग्रहों के चंद्रमयों के समन्दरो में जिंदगी मौजूद है ?

हिन्दुतान ऐरोनौटिक्स लिमिटेड कर रही है ऐसे एयरक्राफ्ट पर रिसर्च जो भविष्य में बिना पायलट के करेंगें बालाकोट जैसे अटैक

एक भविष्य के बालाकोट-टाइप की एयर स्ट्राइक की कल्पना करिये जहाँ भारतीय वायु सेना अपने पुरानें हो चुके मिग-21 को एक्स्पोस करने के बजाय तेजस फाइटर जेट्स के साथ आर्टिफीसियल इंटेलीजेंस युक्त मानवरहित ड्रोन से करेंगे बालाकोट जैसे हवाई हमलें।

इस कांसेप्ट को पहली बार 2018, बेंगलुरु में एक सीनियर HAL के टेस्ट पायलट ने रखा ताकि भविष्य में जंग के दौरान भारतीय एयरक्राफ्टस्स और पायलटों को कम से कम नुकसान हो। अगले दो सालों में, 400 करोड़ रुपये की फंडिंग के साथ, एचएएल ने कॉम्बैट एयर टीम्स सिस्टम (CATS) को डेवेलप किया है, जो भारतीय वायुसेना की ताक़त में इजाफा करेंगे।

CATS एडवांस्ड ऑटोनोमस मानवरहित ड्रोनों के एक नेटवर्क को लड़ाकू विमानों से जोड़ेगा जो बाद में जंग के दौरान दुश्मन की हवाई क्षेत्र में घुसे बिना एयर टू एयर और एयर टू ग्राउंड हमले के लिए ड्रोन का इस्तेमाल करेंगे।

कैट्स की डेवेलपमेंट की तीन प्रमुख कारण हैं : पहली वजह है दूसरे देशों की तुलना में भारत की लिमिटेड मिलिट्री रिसोर्सेज, दूसरी वजह है भविष्य के एडवांस्ड इक्विपमेंट्स बनाने की भारत की अपनी महत्वाकांक्षा और तीसरी वजह है दुश्मन के हवाई क्षेत्र पर हमलों के लिए ज्यादा से ज्यादा मानवरहित प्लेटफॉर्म्स का उपयोग करने के लिए भारत की सामरिक प्राथमिकता।

कैट्स का मैन मकसद टीम वर्क को बढ़ाना था। हर सर्विस में, टीमवर्क कामयाब होने और सरवाइव करने की कुंजी है, चाहे आप एक सैनिक हों, सेलर हों या एयरमैन हों, हालांकि, 90 के दशक में पायलटों के लिए जोखिम को कम करने के लिए इस तरह की ऑटोनोमस टेक्नोलॉजी को डेवेलप कर पाना असंभव था। लेकिन आज ऐसा नहीं है, आज हमारे पास ऐसा करने के लिए तकनीक मौजूद है।

यह आईडिया हमारे पायलटों को वायु सेना में बदलने के लिए नहीं, बल्कि उन्हें सपोर्ट देने के लिए है। इस टीम में मदरशिप शामिल है, जो टेस्टबेड के केस में  टू-सीटर तेजस के साथ साथ ही कई अलग-अलग प्रकार के ड्रोन हैं, जिसमे से एक CATS वारियर है, यह एक बड़ा ड्रोन है जिसका इस्तेमाल हवाई या जमीनी टारगेट्स पर सटीक हमला करने के लिए किया जा सकता है।

दूसरा CATS हंटर है जो तेजस से जुड़े विंगपोड्स में लैस होतें है। हंटर एक प्रकार का रिकवरेबल क्रूज मिसाइल है, जिसमें 250 किलोग्राम का वारहेड अटैच्ड होता है। जब इसके पेलोड के बटन को दबाया जाता है, तो यह लंबे समय तक हवा में रह सकता है, साथ ही यह स्ट्राइक ज़ोन्स को जाम करने, निगरानी या टोह लेने और स्ट्राइक ज़ोन्स की पोस्ट-एक्शन फिल्मिंग कर सकता है।

एक तीसरा ड्रोन, CATS अल्फा है जो काफी छोटा है, जो 5-8 किलोग्राम वॉरहेड से लैस है और यह टारगेट को स्वार्म कर सकते हैं यानि घेर सकते हैं। यह प्रोजेक्ट भविष्य की उन्नत तकनीकों को विकसित करने के लिए एचएएल के एक बड़े सपने का हिस्सा है। हम नहीं चाहते कि हमारे पायलट दुश्मन के खतरनाक इलाकों में जान जोखिम में डालने जाएं, इस प्रोजेक्ट से जुडे एचएएल के ऑफिसर का कहना है कि अपने पहले फ्लाइट टेस्ट के लिए एक प्रोटोटाइप बनाने में अभी लगभग चार साल लगेंगे।

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